सभ्यता के “विकास” और “पतन” का भेदज्ञान, [प्रविष्टि - 1, खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती]

in #india5 years ago (edited)

प्रविष्टि - 1
कचरे के बाज़ार में इठलाता मशीनी-मानव


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“आज मनुष्य द्वारा किया जा रहा तकनिकी विकास उस मुकाम तक पहुँच चुका है कि जल्दी ही हमें एक मानव और एक रोबोट में अंतर करने के लिए विशेषज्ञों की सेवाएँ लेनी पड़ेगी!”

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आज के मशीनी एवं भौतिकता-उन्मुखी जगत में जीवन लगभग समाप्त-सा हो चुका है। यूँ कहें कि जीवन को जीने का या इसे समझने भर तक का हमारे पास आज समय ही नहीं है।

जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन एक पूर्वनियोजित रणनीति के अनुसार चलता है। जन्म होते ही शिशु को क्या खाना, क्या पीना, कितना सोना, दवा-टीका इत्यादि चिकित्सक तय करता है या फिर आया ! और वह जैसे ही कुछ समझने की स्थिति में आये कि उसको डे-केयर / किंडरगार्टन / प्ले-स्कूल / प्री-स्कूल आदि के हवाले कर दिया जाता है। यहाँ से किसी उत्कृष्ट विद्यालय में दाखिला दिलवाने हेतु उसके जीवन को ‘निखारने’ का प्रयास शुरू हो जाता है। फिर स्कूल में इतने अधिक अक्षरों से लाद दिया जाता है कि उसका शेष समय ट्यूशन-कोचिंग, गृहकार्य-परियोजनाकार्य आदि में व्यतीत हो जाता है। बचपन को यों खोने के बाद किशोरावस्था में उसे बताया जाता है कि अभी कैरियर बनाने के लिए भयंकर प्रतियोगिता होनी है जिसके लिए अनेक वर्षों तक 18 घंटें प्रतिदिन का अध्ययन भी शायद नाकाफी हो, फिर भी प्रयास तो करना ही पड़ेगा।

जैसे-तैसे महाविद्यालय में प्रवेश मिला और अच्छे अंकों से डिग्री हासिल की। अभी पढ़ाई पूरी भी नहीं हुई कि कई व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के साक्षात्कार शुरू हो गए, कैम्पस-प्लेसमेंट में भी सफलता मिली। अमुक कंपनी की अमुक वर्षों के लिए ट्रेनी के पद पर नौकरी का बोंड भरवा दिया गया। आज इस समाज में अच्छी नौकरी व अच्छी आय एक सफल जीवन का द्योतक है। अतः माता-पिता ने उतना ही सफल जीवन-संगी तलाश कर परिणय-सूत्र में बंधवा दिया।

अब यह नौकरी-पेशा दम्पती रिटायरमेंट तक अपना अब तक का जीवन अपने बच्चों में दोहराते हैं! अधेड़ावस्था न जाने कब बीत जाती है और वृद्धावस्था के जीर्ण शरीर एवं रोगों में परिणत हो जाती है। पूरे जीवन की भाग-दौड़ में पल-भर विचार करने तक की फुरसत नहीं मिल पाती कि हम अपने जीवन में क्या कर रहे हैं? क्या खा रहे हैं? क्या पहन रहे हैं?

हम महंगे ब्राण्ड व सुसज्जित वस्तुओं और विश्वसनीय सेवाओं का यथा-मूल्य चूका कर, उनके उपभोग को अपनी सामान्य दिनचर्या का एक अंग मानकर अपने को बहुत ही शिष्ट, सोफिस्टीकेटेड, सुसंस्कृत और संभ्रांत समझते हैं। बाज़ार से कुछ भी खरीदने के लिए हमारे आकलन का मानदंड होता है – सुन्दर और आकर्षक पैकेजिंग, प्रतिष्ठित ब्राण्ड, इनसे समाज में हासिल होने वाली प्रतिष्ठा, नामी प्रतिष्ठान, लुभावने विज्ञापन, अपनी दौलत का गुरूर एवं इन सबसे आकार लेती हुई हमारी कृत्रिम आवश्यकताएं।

किन्तु खरीददारी के समय हम वस्तुओं और सेवाओं का हमारे समक्ष प्रस्तुत आकर्षक रूप ही देख पाते हैं। वह अपने मूल रूप से इस आकर्षक रूप तक के परिवर्तन-क्रम में किन-किन व कैसी-कैसी निकृष्ट प्रक्रियाओं से गुजरी है, इससे हम सदा अनभिज्ञ रहते हैं। जटिल प्रक्रियाओं को एकबारगी छोड़ भी दें, अधिकतर उपभोक्ता तो यह तक नहीं बता सकते कि रोज़मर्रा के खाद्य-पदार्थ कैसे बनते हैं। कभी आप किसी से पूछ कर देखना कि मखाना किस से बनता है? साबूदाना कहाँ से आता है? चीनी सफ़ेद कैसे हो जाती है? काजू-बादाम कैसे छीले जाते हैं? बाज़ार में इतने सारे तरबूज के बीज़ कहाँ से आते हैं जबकि तरबूज तो हम खरीदकर खा जाते हैं? बेकरी में इस्तेमाल होने वाली रंग-बिरंगी चेरियाँ किससे बनती हैं? मशरूम का बीज़ कैसे बनता है? वनस्पति-घी कौनसी वनस्पति से बनता है? मार्जरीन क्या एक मक्खन की किस्म है? आप पाएंगे कि ऐसे छोटे-छोटे सभो प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर दे सकने में सक्षम किसी एक व्यक्ति को खोजना भी मुश्किल है। हमारी औद्योगिक संस्कृति ने उत्पादों की व्युत्पत्ति और उपभोक्ता के बीच एक बड़ी खाई खोद दी है, जिससे उपभोग के मूल स्वरूप से ही हमारा संबंध-विच्छेद हो गया है। अब तो कई उत्पादों के आपत्तिजनक नाम पर भी हमारा ध्यान नहीं जाता। कई बार बोनचाइना से बने कप में चाय पीते शाकाहारी लोगों से जब मैंने प्रश्न किया कि बोनचाइना शब्द में ‘बोन’ क्यों प्रयुक्त होता है तो जवाब मिला कि इस पर तो कभी उन्होंने विचार ही नहीं किया। क्या आप जानते हैं कि प्रजनन केन्द्रों में गायों के कृत्रिम प्रजनन के लिए उपयोग में ली जाने वाली रैक को रेप-रैक क्यों कहा जाता है? दरअसल, उत्पादों के मूल स्वरूप से प्रत्यक्ष संबंध न बन पाने के कारण जन्मी अज्ञानता से आज आम आदमी बड़ा संवेदनहीन हो चुका है।

आज पूंजीवादी व्यवस्था हमारी इसी कमजोरी का फायदा उठाती है। वे समझ चुके हैं कि आज के धनाढ्य उपभोक्ता को कुछ भी अनर्गल, सड़ांध-भरा कचरा भी सुन्दर एवं आकर्षक तरीके से पेश किया जावे तो वह भी अच्छे दामों में बिक जाता है। पूंजीपति आपके उसूलों, संस्कारों, उद्देश्यों, स्वास्थ्य, पर्यावरण-प्रेम, जैविक-संतुलन, सुखद दीर्घकालीन भविष्य आदि को नहीं देखते, वे महज़ आपके धन की ओर दृष्टि करते हैं और उसे अधिक से अधिक शीघ्रता से हड़पने के लिए नये-नये षड़यंत्र बुनते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों का एक ही लक्ष्य होता है – येनकेन प्रकारेन कम से कम समय में, अधिकाधिक मुनाफा कमाना। आपके व्यक्तिगत या सामाजिक उसूलों, सिद्धांतों, उद्देश्यों, संस्कारों, भावनाओं आदि की रक्षा का जिम्मा स्वयं आपका है। पूंजीपतियों की सभी व्यावसायिक गतिविधियों से होने वाले दुष्प्रभावों एवं हानियों (जैसे पर्यावरण-प्रदूषण, अत्यधिक संसाधनों का दोहन, नैतिकता का पतन इत्यादि) का संपूर्ण उत्तरदायित्व भी उपभोक्ता का ही है क्योंकि उपभोक्ता ही पूंजीपतियों को धन देता है, उसी के पैसों के खातिर तो उनकी ये सब गतिविधियाँ हो रही हैं, न!

अतः आज के इस सघन औद्योगिकरण और व्यावसायीकरण के युग में, प्रत्येक उपभोक्ता को अत्यंत ही सज़ग और सावधान होने की आवश्यकता है। उसे ध्यान रखना होगा कि उसकी खून-पसीने से की कमाई की एक-एक पाई का अंततः किस प्रकार से उपयोग हो रहा है। इस तथ्य को समझने की कोशिश करें कि आपके खर्चों एवं उपभोगों पर बरती गई लापरवाही ही आज समाज में व्याप्त कई गंभीर और प्राण-घातक समस्याओं की जड़ है। यहाँ तक कि मानव प्रजाति के स्वयं का अस्तित्व भी आज बहुत हद तक आपके अपने पैसों के उपयोग या दुरूपयोग पर टिका हुआ है। बस इन्हीं बातों को थोड़ा विस्तार से बताने के लिए मैंने आगे के पन्ने भर दिए हैं। उनको ध्यानपूर्वक पढ़ने के बाद ही आपको इस यथार्थ का एहसास हो पायेगा कि हमारे अस्तित्व की यह डगमगाती किश्ती जब डूबेगी तो डूबने को शुद्ध जल भी नसीब नहीं होगा, क्योंकि वो तैर ही खून के अथाह महासागर पर रही है।

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अगले अंक में पढ़ें: प्रविष्टि – 2: अंधाधुंध औद्योगिकरण से कराहती वसुंधरा

धन्यवाद!
आशुतोष निरवद्याचारी

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