"खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती" - दो शब्द (मेरे पक्ष में)

in #india5 years ago (edited)

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नमस्ते दोस्तों,

इससे पहले कि मैं आप सभी से "खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती" पुस्तक की विषय सामग्री साझा करूं, मैं इसके प्रारंभ मैं "दो शब्द" नाम से दिए प्राकथन को आज आपके समक्ष रखना चाहूँगा जिसे कि आप मेरे एक लेखक न होते हुए भी इस पुस्तक को लिखने की वजह समझ पायें. आशा है आप इसे भी पढना चाहेंगे!

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दो शब्द (मेरे पक्ष में)

नहीं, मैं आपको धोखे में नहीं रखना चाहता। मैं कोई स्थापित लेखक या मंजा हुआ वक्ता नहीं हूँ जो अपनी बात आपको मात्र दो शब्दों में कह पाऊं! मुझे तो पूरी भाषा की शब्द-सीमा भी अपर्याप्त लगती है। न ही मैं इस पुस्तक मैं कोई नवीन बात या तथ्य उजागर करने जा रहा हूँ। आप पूछेंगे, फिर ये पुस्तक लिखने की गुस्ताखी क्यों, भई? दरअसल, मेरा मकसद आपके जीवन को छूते कुछ गंभीर और बेहद संवेदनशील मसलों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना है। कुछ ऐसे समसामयिक मुद्दे हैं, जिन पर दूसरी भाषाओँ में काफी सामग्री प्रकाशित हो चुकी है और जो दुनिया भर में चर्चा और आंदोलन का विषय बने हुए हैं। परन्तु ढूंढ़ने पर भी हिंदी भाषा में मुझे इन पर एक भी पुस्तक नहीं मिल पाई। आमजनों से वार्तालाप करने पर मुझे अहसास हुआ कि अधिकांश हिंदी-भाषी लोग, इन महत्वपूर्ण विषयों से बिल्कुल ही अनभिज्ञ हैं। अतः एक लेखक न होते हुए भी मुझे इस पुस्तक को लिखने का जुल्म करना पड़ा। इस हेतु मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूँ। परन्तु मैं यह दावा करता हूँ कि अगर इस पुस्तक को आप बिना किसी पूर्वाग्रह के, खुले दिल से, शुरू से लेकर आखिर तक पढ़ डालेंगे तो आपका व्यक्तित्व, आपकी सोच, आपकी मिथ्या-मान्यताएँ और आपकी जीवन-शैली वैसी नहीं रह पायेगी जैसी इसे पढ़ने से पहले थी।

दूसरी बात, भाषा के दायरे के उल्लंघन पर। पिछले कुछ वर्षो में अंग्रेजी भाषा में ऐसे कई नए शब्द ईजाद हुए हैं जिनका हिंदी में कोई समकक्ष शब्द नहीं मिलता। उदाहरणार्थ “carnism” (2001), “vegan” (1944), “speciesism” (1970) आदि। ऐसे ही कुछ शब्दों को हिंदी में व्यक्त करने के लिए मुझे कुछ विशिष्ट हिंदी शब्दों की परिभाषाओं में इनका समावेश करना पड़ा अथवा कुछ मूल शब्दों को नए रूप में गढ़ना पड़ा। मैं यहाँ स्पष्ट कर दूं कि इस हेतु मैंने भारत सरकार के ‘वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग’ से कोई अनुशंसा या स्वीकृति नहीं ली है। अतः इनको सरलता से पहचानने के लिए, मैंने इन्हें पुस्तक के अंत में एक अलग परिशिष्ट में सूचीबद्ध कर दिया है। यदि किसी को इस पर कोई ऐतराज हो तो मुझसे सीधे संपर्क कर सकता है।

हालाँकि मैंने अपनी बात को रखने के लिए पूर्णतः विज्ञान-सम्मत आँकड़ों एवं तथ्यों का प्रयोग किया है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं अरस्तु के इस विवादास्पद कथन से सहमत हूँ कि मनुष्य एक तर्कसंगत जानवर है। यह मेरा व्यावहारिक और प्रत्यक्ष अनुभव है कि कितने ही सत्यापित तर्कों के बावजूद वह उनके उलट निर्णय भी बड़ी ही सहजता से ले लेता है। हमारे अधिकतर निर्णय हमारे अंतर्मन में गढ़े हुए सुदृढ़ भावनात्मक संबंधों, पुरानी आदतों और परंपराओं के प्रभाव से होते हैं। हाँ, तर्क उसमें सहायक की भूमिका अवश्य निभा सकते हैं। ध्यान रहे, अरस्तु ने यह भी कहा था कि आत्मा शब्दों से नहीं बल्कि मानसिक चित्रों के माध्यम से सोचती है। अतः इस पुस्तक के स्वरूप में मैंने अपनी बात को कहने के लिए इन बातों का भी ध्यान रखा है। सुदृढ़ और वैज्ञानिक तर्कों के अलावा मैंने भावनात्मक प्रभाव हेतु परिस्थितियों का शाब्दिक चित्रण करने का भी प्रयास किया है। लेकिन किसी अत्यधिक भावुक पाठक को किसी भी प्रकार के सदमें और कठोराघात से बचाने के लिए मैंने वास्तविक चित्रों का प्रयोग करना उचित नहीं समझा। इन सबके बावजूद भी यदि मैं अपनी बात आप तक पहुँचाने में नाकामयाब रहूँ तो मैं आपको मेरी अगली पुस्तक का इन्तजार करने की सलाह के अलावा और कुछ नहीं कहुँगा।

हमारे देश की आजादी की लड़ाई जैसी बड़ी चुनौती के समाप्त होने के पश्चात किसी अन्य बड़ी चुनौती के अभाव में युवा-पीढ़ी मानो गुमराह हो गई है और अक्सर उनकी ऊर्जा को कोई सकारात्मक दिशा न मिल पाने से वे गलत मार्ग पर भटक जाते हैं अथवा अपनी ऊर्जा को यूँ ही जाया कर देते हैं। ऐसी क्रन्तिकारी विचारधारा के किशोर-किशोरियों और नवयुवक-नवयुवतियों को यह पुस्तक एक महा-आंदोलन में प्रतिभागिता की राह भी बताती है।

फुटनोट्स और अभिलेखों के प्रति मेरा व्यक्तिगत रुझान कम होने के कारण मैंने सभी संदर्भित स्रोतों को या तो कथन के मुख्य-भाग में जगह दे दी है या फिर उन्हें परिशिष्ट में स्थानांतरित कर दिया है। चूंकि यह कोई शोध-कार्य या औपचारिक पाठ्य पुस्तक नहीं है, मुझे इनका प्रयोग पुस्तक को पढ़ने के प्रवाह में एक व्यवधान लगता है। अतः आप में से बहुत अधिक शंकालु या वैज्ञानिक प्रवृत्ति के पाठकों को थोड़ी परेशानी हो सकती है। किसी भी पाठक को इस पुस्तक में उल्लेखित विचार या तथ्य पर कोई भी शंका या सवाल हो तो वह लेखक के ईमेल पर सीधे संपर्क कर सकता है।

अंत में, मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस पुस्तक का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, धर्म, वर्ग या संप्रदाय-विशेष की भावनाओं और मान्यताओं को ठेस पहुँचाना नहीं है। परन्तु विद्यमान परिस्थितियों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में उनका उचित प्रतिपादन कर सत्य को स्वीकार करना है। यदि आप तटस्थ भाव से इस पुस्तक को पढ़ने और ग्राह्य करने में अक्षम हैं तो कृपया इसे यहीं बंद कर देवें।

धन्यवाद!
~ आशुतोष निरवद्याचारी
(16 अक्टूबर, 2015)

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क्रमश: ...अगली पोस्ट में

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